इन दिनों शादियों को सीज़न काफी जोरो पर है,ऐसे में शादी के बाद हम हनीमून के लिए भी प्लेन कर रहे होगें। जाहिर सी बात है आप कुछ बेस्ट और रोमांटिक जगह सर्च कर रहे होगें। परेशान न हो आपके लिए हम बेस्ट और कम बजट में जगह ढूंढकर निकाली है,जहां आप कम पैसों में काफी टाइम साथ रह सकते हैं।
1-श्रीलंका
हालही में फॉर्ब्स मैगज़ीन ने श्रीलंका को दुनिया के बेस्ट 10 जगहों में से 10वे स्थान पर रखा हैं। यहां की खूबसूरती,वाइल्ड लाइफ आपको को बेहद पसंद आएगी। यहां पर आप कम बजट में लग्ज़री लाइफ और काफी सारी चीज़ें उपलब्ध हैं।यहां आने के लिए आप चैन्नई से फ्लाइट ले सकते हैं। यहां के लोगों की आवभगत देखकर आपका मन खुश हो जाएंगा।
2-थाईलैंड
साउथ-एशिया ईस्ट में सबसे पसंदीदा टूरिस्ट डेस्टिनेशन थाईलैंड को माना जाता है। यह सबसे सस्ता और खूबसूरती से भरा हुआ है। यहां पर दूर-दूर से लोग शादी करने के लिए आते हैं। यहां आपको अपने बजट के हिसाब से रिसॉर्ट और वेन्यू ऑप्सन मिल सकते हैं। इससे अच्छा आपको क्या मिलेगा की किसी बीच पर आप अपनी शादी करें,वो भी सस्ते में।
3-मालदीव
शादी या रिंग सेरेमनी करने के लिए यह छोटा सा आइसलैंड बेहद ही अच्छा है। यहां पर आप अपनी फैमिली और दोस्तों के साथ इन्जॉय कर सकते हैं। यह आइसलैंड बेहद ही सुंदर और यहां पर आपको कम बजट के रिसॉर्ट मिल जाएंगे। अगर आपका मन है कि आप बीच पर शादी करें तो आपके लिए परफेक्ट डेस्टिनेशन हैं।
4- मलेशिया
बाकी दूसरे देशों की तरह मलेशिया भी खूबसूरत और घूमने के लिए परफेक्ट है।यहां पर भी आपको शादी या रिंग सेरेमनी ज़्यादा महंगी नहीं पड़ेगी बल्कि साथ में आप यहां पर हनीमून पैकेज ले सकते हैं। यहां घूमने के लिए ज़्यादा बजट की ज़रूरत नहीं,कम बजट में आप अपनी शादी बहुत ही अच्छे से निपटा सकते हैं।
5-बाली
अगर आपका किसी कल्चरल जगह घूमने का मन है तो आपके लिए बाली सही है। यहां की खूबसूरती आपका मन मोह लेगी और सबसे अच्छा कि यह कम बजट की जगह है। यहां आपको कम बजट में लग्ज़री रिसॉर्ट,होटल और घूमने के लिए काफी सारी जगहें उपलब्ध हैं। हर साल लाखों लोग हनीमून के लिए यहां आते हैं।
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3 - Mal'divskiye o-va
Etot
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पुराणकाळांतील दत्तोपासनेला लौकिक-ऐहिक आकांक्षा आहेत. पुराणकथांच्या
अद्भुत आवरणांतून दिसणारे दत्तस्वरूप रहस्यमय आहे. त्यामुळेच
दत्तोपासनेच्या इतिहासाचा वेध घेताना पुराणकाळातील अद्भुतरम्य गूढ
वातावरणातून बाहेर यावे लागले.
इसवी सनाच्या पहिल्या सहस्रकाच्या अखेरीस दत्तात्रेय ही देवता
पुराण-वाङ्मयांत बरीच प्रसिद्धी पावली होती. अर्थात प्रत्यक्ष लोकधर्माच्या
क्षेत्रांत ती उपासनेचा विषय किती प्रमाणांत बनली होती, हे सांगायला आज
तरी साधने उपलब्ध नाहीत. पुराणातील दत्तलीलांवरून व्याप्तीचा अंदाज बांधणे
अशक्य आहे. पुराणांत वर्णिलेल्या सर्व अनेकविध देवता सार्वत्रिक उपासनेचा
विषय बनल्या होत्या, असे म्हणता येणार नाही. यादवपूर्व काळांत
महाराष्ट्रांत प्राधान्याने शिवाची (आणि शक्तीचीही) उपासना व्यापक
प्रमाणावर रूढ होती. यादवपूर्व काळांतील शेकडो शिलालेखांतून तत्कालीन
उपासनेविषयांचे उल्लेख आढळतात. त्या उल्लेखांतून शिवशक्ती-विष्णू या प्रधान
उपास्यांशिवाय अनेक गौण देवतांचेही तुरळक उल्लेख आहेत, परंतु कुठेही
दत्तात्रेयाचे मंदिर उभारले गेल्याचा वा अन्य दत्तोपासनाविषयक उल्लेख आढळत
नाहीत. पुराव्यांचा अभाव हे कारण दत्तोपासनेचे प्राचीन अस्तित्त्व
नाकारण्यास पुरेसे नाही, हे जरी खरे असले, तरी नाथ संप्रदायाच्या
उदयापूर्वी (इसवी सनाचे ११वे शतक) दत्तोपासना लोकमानसांत विशेष स्थान पावली
नसावी असे वाटते.
पुराणात वर्णन केलेल्या दत्तशिष्यापैकी यदु, आयु, अलर्क, सहस्रार्जुन व
परशुराम हे क्षत्रिय वृत्तीचे आहेत. दत्तात्रेयाच्या कृपाप्रसादाने
वर्णाश्रमधर्माची प्रतिष्ठा राखण्याचे कार्य या दत्तोपासकांनी केले, असे
पुराणकारांचे सांगणे आहे. भागवतात नोंदविलेला आणखी एक प्रसिद्ध दत्त-शिष्य
म्हणजे प्रल्हाद. हा मात्र राज्यवैभवाचा मोह सोडून मुमुक्षु बनला होता.
उपनिषदांत उल्लेखिलेला सांकृती हा दत्तशिष्य एक महामुनी होता. हे
पुराणकालीन दत्तोपासक दत्ताचे शिष्य समजले जातात, ते उपासक नव्हेत.
प्रल्हाद हा दत्तशिष्य श्रीविष्णूचा उपासक होता, हे सर्वश्रुत आहे. म्हणजे
दत्तात्रेय गुरुतत्त्वाचे प्रतीक आहे, उपास्य दैवत नव्हे, अशी काहीशी
कल्पना पुराण काळातही रूढ असावी, असे वाटते. या कल्पनेवरूनही
दत्तात्रेयाच्या रहस्य मुळावर काही प्रकाश पडू शकेल. दत्तात्रेय हा
विष्णूचा अवतार आहे, तर विष्णूच्या राम-कृष्ण आदी अन्य अवतारांप्रमाणे तो
उपासनेचा स्वतंत्र विषय न बनता केवळ शक्तिदान करणारा वा मंत्रदीक्षा देणारा
गुरूच कसा उरावा? गुरुतत्त्वाचा अंतिम आदर्श हे जे दत्तात्रेयांचें स्वरूप
पुराणकाळापासून आजतागायत रूढ आहे, त्या स्वरूपांतच दत्तात्रेयाच्या
'अवतारा'चे रहस्य दडलेलं असावे. दत्तात्रेय हा तंत्रसाधनेच्या क्षेत्रांतला
एक महासिद्ध असला पाहिजे. त्याच्या सिद्धींच्या आणि पारमार्थिक
अधिकाराच्या प्रसिद्धीतून अखिल भारतीय साधनेच्या
क्षेत्रात त्याला 'श्रीगुरू'चे स्थान लाभले असावे आणि त्याचे संपूर्ण
पुराणीकरण झाल्यानंतरही त्याचे हे लोकप्रसिद्ध 'सद्गुरुस्वरूप' कायम राहिले
असावे. '' दत्तात्रेया सीम्स टू हॅव बीन ए सेंट अॅण्ड टीचर इलेवेटेड टू द
रँक ऑफ डिव्हिनटी '' असा अभिप्राय प्रा. कृष्णकांत हंडिकी यांनीही व्यक्त
केला आहे.
पुराणकाळांतील बहुतेक दत्तोपासक 'अर्थार्थी' आहेत. त्यांच्या काही
लौकिक-ऐहिक आकांक्षा आहेत आणि त्या आकांक्षांच्या परिपूर्तीसाठी वा
अडचणींच्या परिहारासाठी त्यांना दत्तकृपेची आवश्यकता वाटत आहे. निष्काम
बनून दत्तात्रेयाची अनन्य उपासना करणारे थोर दत्तोपासक अनेक होऊन गेले
असले, तरी पुराणकाळातील दत्तोपासनेतील हा 'सकामते'चा अंश अगदी विसाव्या
शतकापर्यंत बहुजनांत टिकून आहे, हे कुणाही निरीक्षकाच्या सहज लक्षात येईल.
पुराणकथांच्या अद्भुत आवरणांतून दिसणारे दत्तस्वरूप रहस्यमय आहे. आज
उपलब्ध असलेल्या साधनसामग्रीवरून त्या रहस्याचा संपूर्ण उलगडा करता येणे
अशक्य आहे. तेव्हा आपण पुराणांच्या अद्भुतरम्य गूढ वातावरणातून बाहेर येऊ
आणि दत्तोपासनेच्या प्रत्यक्ष इतिहासाचा आढावा घेऊ. पुराणांचे क्षेत्र
सोडून इतिहासाच्या भूमीवर पाऊल टाकल्याबरोबर आपणास दत्तोपासनेचा आढळ होतो,
तो नाथ संप्रदायाच्या वातावरणात. नाथ संप्रदायानंतर महानुभाव संप्रदायांतही
दत्तात्रेयाचे स्थान विशेष आहे. पुढे चौदाव्या शतकात नरसिंह सरस्वतींच्या
प्रेरणेतून खास दत्तभक्तिप्रधान दत्त संप्रदाय रूढ झाला. परंतु या दत्त
संप्रदायाशिवाय वारकरी संप्रदाय, आनंद संप्रदाय, समर्थ संप्रदाय इत्यादी
अन्य संप्रदायांतही दत्तात्रेय हे एक परम श्रद्धास्थान मानले गेले आहे.
दत्तसंप्रदायेतर संप्रदायांतील दत्तात्रेयाच्या स्थानाचा आपण क्रमाने विचार
करू या. चांगदेवांच्या नावापुढे 'राऊळ' हे उपपद
आहे. 'राऊळ' म्हणजे गुरू वा श्रेष्ठ पुरुष. नाथ संप्रदायात 'राऊळ' (रावळ)
या नावाचा एक उपपंथ आहे. या उपपंथाचा प्रवर्तक नागनाथ नामक एक सिद्ध समजला
जातो. या उपपंथात मुसलमानांचा भरणाही बराच आहे. दत्तात्रेय आणि नाथ संप्रदाय
दत्तात्रेय हा 'अवधूत' जोगी आहे आणि नाथ संप्रदाय हा अवधूत पंथ आहे,
एवढय़ा एकाच गोष्टीवरून दत्तात्रेयाचा आणि नाथ संप्रदायाचा आत्मीय संबंध
सिद्ध होऊ शकेल. परमप्राप्तीसाठी योगसाधनेचा स्वीकार आणि गुरुसंस्थेची
महनीयता ही दत्तस्वरूपांतील दोन मोठी वैशिष्टय़े नाथ संप्रदायाच्या
सिद्धांतात आणि साधनेत अनुस्यूत आहेत. अवधूतावस्थेच्या विचाराला नाथ
संप्रदायात अत्यंत महत्त्वाचे स्थान आहे. गोरक्षनाथ हा अवधूतावस्थेचा
परमप्रकर्ष समजला जातो. गोरक्षनाथाचा उल्लेख केवळ 'अवधू' (अवधूत) या
शब्दानेही केला जातो. कबीराच्या साहित्यात 'अवधू' हा शब्द नाथजोगी या
अर्थाने अनेकदा आलेला आहे. त्याचमुळे दत्तात्रेयप्रणीत समजला जाणारा
'अवधूतगीता' हा ग्रंथ नाथ संप्रदायांत एक प्रमाणग्रंथ म्हणून प्रतिष्ठा
पावला आहे. कदाचित नाथ संप्रदायांत दत्तात्रेयाला अवधूतावस्थेचा परमादर्श
म्हणून स्थान असल्यामुळे 'अवधूतगीता' हा दत्तात्रेयप्रणीत गं्रथ नाथ
संप्रदायाच्या परंपरेत वा प्रभावाखाली निर्माण झाला असावा असे वाटते. ज्या
अवधूतावस्थेमुळे दत्तात्रेय आणि नाथ संप्रदाय यांचा आत्मीय संबंध संभवला,
त्या अवधूतावस्थेची लक्षणे तरी कोणती?
पहिल्या प्रकरणात उल्लेखिलेल्या अवधूतोपनिषदात सांकृति नामक शिष्याला दत्तात्रेय अवधूताची लक्षणे सांगत आहेत.
अक्षरत्वाद्वेरण्यत्वाद्धूतसंसारबन्धनात्। तत्त्वमस्यादिलक्ष्यत्वादवधूत इतीर्यते॥१॥ यो विलङ्घ्याश्रमान्वर्णानात्मन्येव स्थित: सदा। अतिवर्णाश्रमी योगी अवधूत: स उच्यते॥२॥
दत्तात्रेयप्रणीत अवधूतगीतेंत 'अवधूत' या शब्दातील प्रत्येक अक्षराचे लक्षण सांगून अवधूतावस्था चितारली आहे.
आशापाशविनिर्मुक्त आदिमध्यान्तनिर्मल:। आनन्दे वर्तते नित्यमकारं तस्य लक्षणम्॥ वासना वर्जिता येन वक्तव्यं च निरामयम्। वर्तमानेषु वर्तेत वकारं तस्य लक्षणम्॥
'सिद्धसिद्धान्तपद्धति' या गोरक्षप्रणीत गं्रथांत अवधूतावस्थेच्या
लक्षणांवर एक संपूर्ण प्रकरण खर्ची पडले आहे. प्रारंभीच गोरक्षनाथ सांगतो :
य: सर्वान प्रकृतिविकारान् अवधुनोतीत्यवधूत:। दैहिक-प्रपंचादिषु विषयेषुं संगतं मन: प्रतिगृह्य, तेभ्य: प्रत्याहृत्य स्वधाममहिम्नि परिलीनचेता: प्रपचशून्य आदिमध्यान्तभेदवर्जित:॥ पादुका पदसंवित्तिर्मृगत्वक्च महाहतम्। वेला यस्य परा संवित्सोऽवधूतोऽभिधायते॥ चित्प्रकाश-परानन्दौ यस्य वै कुंण्डलद्वयम्। जपमालाक्षविश्रान्ति: सोऽवधूतोऽभिधीयते॥ क्वचिद्भोगी क्वचित्त्यागी क्वचिन्नग्न: पिशाचवत्। क्वचिद्राजा क्व चाचारी सोऽवधूतोऽभिधीयते॥
या दीर्घ उताऱ्यांवरून दत्तात्रेयोक्त आणि गोरक्षनाथोक्त अवधूतकल्पनेचे
एकत्व वाचकांना समजून येईल. जीवनध्येयाच्या या मूलभूत साम्याशिवाय या दोन
'सिद्धां'च्या विचारांत आणखीही साम्ये आढळतील. गोरक्षनाथाचा नाथ संप्रदाय
हा वामाचारी साधनांविरुद्ध प्रतिक्रिया म्हणून उदय पावलेला आहे. स्त्री आणि
मद्यमांसादी मादक द्रव्यांना ज्या साधनाप्रणालीत स्थान होते, अशा तांत्रिक
साधनांच्या प्रभावांतून भारतीय साधनेची मुक्ती करण्याचा एक महान प्रयत्न
गुरू गोरक्षनाथाने केला. या त्याच्या असामान्य जीवनकार्यामुळेच ज्ञानेश्वर
आपल्या या परमगुरूला 'विषयविध्वंसैकवीर' या बिरुदाने गौरवितात.
वामाचाराविरुद्ध आंदोलन उभे करताना स्वाभाविकच गोरक्षवाणीत स्त्रीनिंदेचा
प्रकर्ष झाला आहे. गोरक्षनाथाच्या नावावर असलेल्या हिंदी रचनांचे संकलन
ज्या 'गोरखबानी' या गं्रथात झाले आहे, त्याच्या पानोपानी स्त्रीनिषेधाचे उद्गार आपणास आढळतील. तांत्रिक योगिनींच्या जाळ्यात अडकलेल्या आपल्या गुरूलाच गोरक्षनाथ सांगतो-
कामंनी बहतां जोग न होई, भग मुष परलै केता। जहाँ उपजै तहाँ फिरि आवटै, च्यंतामनि चित एता॥
(कामिनीच्या संगतीने योगसाधना सिद्धीस जाणे अशक्य आहे. आजवर भगमुखाच्या
छंदाने किती तरी भले भले नष्ट झाले. जेथून आपण या संसारचक्रांत फेकले गेलो,
त्याच स्थानाकडे पुन: फिरणे होणे इष्ट नाही, अशी मनाला सारखी जाणीव
द्यावयास हवी.)
अवधूतगीतेंतही अत्यंत कठोरपणे स्त्रीनिंदा व्यक्त झालेली आहे.
न जानामि कथं तेन निर्मिता मृगलोचना। विश्वासघातकीं विद्धि स्वर्गमोक्षसुखार्गलाम्॥ मूत्रशोणितदुर्गन्धे ह्यमेध्यद्वारदूषिते। चर्मकुण्डे ये रमन्ति ते लिप्यन्ते न संशय:।
विस्तारभयास्तव दत्तोत्रेय-गोरक्ष-विचारांतील साम्यांचा अधिक प्रपंच
येथे करता येत नाही. तो एक स्वतंत्र ग्रंथाचा विषय होऊ शकेल. तेथे केवळ
त्यांच्यातील एकसूत्रतेचे सूचन घडविले आहे इतकेच. या दिशेने विचार करणाऱ्या
जिज्ञासूंना त्या एकरसतेची दर्शने संबंधित साहित्यांत जागोजाग घडतील.
प्रत्यक्ष 'अवधूतगीता' हा ग्रंथ स्वामिकार्तिकसंवादात्मक असण्याऐवजी
दत्तात्रेयगोरक्षसंवादात्मक असल्याच्या नोंदीही काही हस्तलिखितांच्या
समाप्तिलेखात आढळतात.
नाथ संप्रदायाच्या उत्तरकालीन ग्रंथातून दत्त-गोरक्ष-संबंधाच्या अद्भुत
कथा आणि त्यांच्यातील तत्त्वसंवाद अनेकवार विवरिले आहेत. गोरखबानींतील
संकलनात 'गोरष दत्त गुष्टि' या नावाचे दत्तगोरक्षसंवादात्मक एक आर्ष हिंदी
भाषेतील प्रकरण आहे. मराठीतही दत्तगोरक्षसंवादावर रचना झालेली आहे. च्िंादड
शंकर नावाच्या तंजावरच्या नाथपंथी साधूने लिहिलेले 'गोरख-दत्तात्रय-संवाद'
या नावाचे २३ कडव्यांचे एक प्रकरण समर्थ वाग्देवता मंदिराच्या
हस्तलिखित-संग्रहात सुरक्षित आहे. पुण्यातील गंगानाथ मठाच्या
हस्तलिखित-संग्रहांत सुंदरनाथ (काशीनाथ-शिष्य) या नावाच्या नाथपंथी साधूने
लिहिलेली 'अविनाशगीता' उपलब्ध झाली आहे. ही 'अविनाशगीता'
दत्तगोरक्षसंवादात्मक आहे.
गोरक्षदत्तात्रयसंवादु। ऐकतां होये आत्मबोधु। उमळे अज्ञानाचा कंदु। श्रवणमात्रें॥१.२१.
'दत्तप्रबोध' या दत्तसांप्रदायिक ग्रंथात ३६-४७ या १२ अध्यायांत
मत्स्येंद्र-गोरक्षादी नाथसिद्धांच्या कथा समाविष्ट झालेल्या आहेत. त्यातील
४६ व्या अध्यायात मत्स्येंद-गोरक्षांना दत्तात्रेयाने गिरनार पर्वतावर
उपदेश केल्याचा वृत्तान्त आहे आणि ४७ व्या अध्यायात गोरक्षनाथाच्या
गर्वहरणासाठी दत्तात्रेयाने दाखविलेल्या चमत्कारांचा वृत्तांत आहे.
'नवनाथभक्तिासार' या नाथपंथीय ग्रंथाच्या ३७-३८ या अध्यायांत
नागनाथ-चरपटनाथादी नाथसिद्धांना झालेल्या दत्तदर्शनाच्या आणि
दत्तोपदेशाच्या कथा आलेल्या आहे. नाथसांप्रदायिकांच्या कल्पनेनुसार
दत्तात्रेय ही योगसिद्धी प्राप्त करून देणारी देवता आहे. उपास्य म्हणून
नव्हे, तर सिद्धिदाता गुरू आणि अवधूतावस्थेचा आदर्श म्हणून नाथ संप्रदायात
दत्ताचे महिमान गायिलेले आहे.
गिरनार हे दत्तक्षेत्र दत्तात्रेय आणि नाथ संप्रदाय यांच्या अनुबंधाचे
जागते प्रतीक आहे. सातशे वर्षांपूर्वी दत्तात्रेयाचा जयजयकार नेपाळपर्यंत
पोचविणारा संप्रदाय म्हणून दत्तोपासनेच्या इतिहासात नाथ संप्रदायाचे महनीय
स्थान आहे. दत्तात्रेय आणि महानुभाव संप्रदाय
महानुभाव संप्रदाय हा दत्त संप्रदायच आहे. या संप्रदायाचे प्रवर्तक
श्रीचक्रधर यांची परंपरा दत्तोत्रेय-चांगदेव राऊळ- गुंडम राऊळ-चक्रधर अशी
आहे. स्वत: चक्रधरांनीच सांगितले आहे : 'या मार्गासि श्रीदत्तात्रेयप्रभु
आदिकारण॥' महानुभावांच्या 'पंचकृष्णां'त दत्तात्रेयाचा समावेश आहे. परंतु
महानुभावांचा दत्तात्रेय हा देवतात्रयीचा वा विष्णूचा अवतार नाही.
महानुभवांच्या तत्त्वज्ञानांत ब्रह्मा-विष्णू-महेश या गौण देवता मानल्या
आहेत. त्यांच्या कल्पनेनुसार दत्तात्रेय, श्रीकृष्ण, चक्रपाणि (चांगदेव
राऊळ), गोविंदप्रभु (गंडम राऊळ) आणि श्रीचक्रधर हे पाच ईश्वरावतार होत.
महानुभावांनी दत्तात्रेयाचे पौराणिक चरित्र मात्र स्वीकारले आहे. त्यांचा
दत्तात्रेय हा अत्रि-अनसूयेचाच पुत्र आहे. अलर्क-सहस्रार्जुन परशुराम ही
पुराणपात्रे त्याच्याशी संबंधित आहेतच. या पंथात आदिगुरू आणि उपास्य या उभय
दृष्टींनी दत्तात्रेयाचे स्थान आहे. महानुभावांच्या दत्तात्रेयाचे स्वरूप
स्थूलतया पुढीलप्रमाणे आहे :
१) महानुभवांचा दत्तात्रेय हा एकमुखी व चतुर्भुज आहे. २) तो विष्णूचा वा देवतात्रयीचा अवतार आहे. ३) त्याने 'गर्भीचा अवतार' स्वीकारून परावर शक्तींचा स्वीकार केलेला आहे. ४) त्याचा अवतार चारी युगांत आहे. ५) त्याची वाणी अमृतवर्षिणी असून त्याचे दर्शन अमोघ आहे. ६) दत्तात्रेयाचा अवतार इतर अवतारांपेक्षा विलक्षण आहे. तो सदैव अदृश्यपणे वावरत असतो. ७) दत्तात्रेयाला निरंतर पारधीचे व्यसन आहे. ८) तो नेहमी नाना वेश-रूपे धारण करून अधिकारी जिवांना मधून-मधून दर्शन देतो.
''महानुभावांच्या कल्पनेप्रमाणे दत्तात्रेयांच्या अवताराचा अदृश्य संचार
महासंहारापर्यंत चालूच राहणार. त्यांचा अवतार त्रेतायुगात झाला असला, तरी
त्यांचे सर्व युगात संचरण चालू असते. ते सदैव अदृश्यरूपाने वावरत
असल्यामुळे त्यांचे दर्शन सहसा कुणाला होत नाही. पण कधी सुदैवाने दर्शन
झाले, तर ते वाया जात नाही. दत्तात्रेयांचे दर्शन म्हणजे एक परीने जीवाला
लाभलेला महाबोधच. दत्तात्रेय प्रभूंपासून ज्यांना बोधाची प्राप्ती होते,
त्यांचा बोध सफल होऊन त्यांना निश्चियाने परमप्राप्ती होते. ज्याला
दत्तात्रेयांपासून बोध लाभतो, त्याला दत्तात्रेय आपल्याबरोबर अदृश्य करून
सदेहीच अपरोक्षदान करतात. उभय-दृश्यावतारापासून (श्रीचक्रधरापासून) ज्याला
श्रीमुखे बोध व्हावा, अशी जोड ज्याने जोडली असेल त्यालाही त्यांचे दर्शन
होते. तसेच प्रेमाचे साधन ज्याने जोडले असेल, त्यालाही त्यांचे दर्शन होते;
सारांश, भक्ताला तर नाहीच, पण त्याच्यापासून बोध झालेल्या ज्ञानियालादेखील
ते दुसऱ्या अवताराजवळ निरवीत नाहीत. ज्याने ज्ञानाधिकार जोडलेला नसेल,
त्याला जर दत्तात्रेय प्रभूंचे दर्शन झाले, तर तेही वाया जात नाही. अशा
पुरुषांना ते ज्ञानाधिकार घडवून दर्शन देतात. पण इतर कारणांमुळे ज्यांना
ज्ञान होणे शक्य नाही, अशांना त्यांचे दर्शन झाले
तर अशा पुरुषांच्या बाबतीत श्रीदत्तात्रेय प्रभूंनी उच्चारलेले शब्द, वर,
आशीर्वाद वगैरे सगळे यथार्थपणे फलद्रूप होतात. दत्तात्रेय प्रभूंची वाणी
अमृताचा वर्षांव करणारी आहे, त्यांनी 'शंबोली शंबोली' म्हणून अलर्काचे
तिन्ही ताप दूर केले.'
महानुभाव संप्रदायाचे 'आदिकारण' दत्तात्रेय बनला, याचे कारण चक्रधरांचे
परमगुरू चांगदेव राऊळ यांना लाभलेलं दत्तदर्शन हे होय. पुण्याजवळील फलटण या
गावी जनकनायक नावाचा एक कऱ्हाडा ब्राह्मण राहत होता. त्याच्या पत्नीचे नाव
जनकाइसा. पुण्याजवळच्या प्रदेशात व्यापार करून हा ब्राह्मण आपली उपजीविका
करीत असे. परंतु त्याला पुत्र नव्हता. पुत्रप्राप्तीसाठी त्याने दुसरे लग्न
केले, परंतु तरीही त्याला मुलगा झाला नाही. अखेर जनकनायकाने दैवी कृपेचा
आश्रय घेतला. त्याने 'चांगदेव' नावाच्या देवतेस नवस केला. जनकाइसचे माहेर
होते चाकण येथे. तेथील 'चक्रपाणी' या देवतेला माहेरच्या मंडळींनी नवस केला.
एके दिवशी चांगदेवाने जनकनायकाला स्वप्नांत दर्शन देऊन सांगितले की, 'तुला
पुत्र होईल.' चांगदेवाच्या कृपेने जनकाइसेला पुत्र झाला. जनकानायकाने
आपल्या श्रद्धेनुसार त्याचे नाव 'चांगदेव' असेच ठेवले. मुलाला घेऊन जनकाइसा
जेव्हा माहेरी गेली, तेव्हा माहेरच्या लोकांनी चक्रपाणीचा नवस फेडला आणि
त्यांच्या श्रद्धेनुसार चांगदेवाला 'चक्रपाणी' हे दुसरे नाव प्राप्त झाले.
विवाहयोग्य वयात चांगदेवांचा विवाह झाला. त्याच्या पत्नीचे नाव कमळाइसा
अथवा कमळवदना. चांगदेवांनी वडिलांचाच व्यवसाय पत्करला आणि तो चांगल्या
रीतीने चालू ठेवला. परंतु प्रथमपासूनच त्यांची वृत्ती वैराग्यप्रवण होती.
कमळाइसा ऋतुस्नात झाल्यावर तिला माहेराहून आणण्यासाठी निघालेल्या आपल्या
पित्याला चांगदेवांनी मोडता घातला. शेवटी माता-पित्यांच्या आग्रहामुळे ते
संसार करू लागले. काही काळानंतर जनकाइसा आणि जनकनायक क्रमाने मृत्यू पावले.
पित्याच्या वर्षश्राद्धाच्या दिवशीच कमळाइसेने त्यांच्याकडे रतिसुखाचा
हट्ट धरला. या प्रकाराने आधीच विरक्त असलेले चांगदेवांचे मन अधिकच उदास बनू
लागले. पुढे आणखी एकदा एकादशीच्या दिवशी कमळाइसेने आपली कामेच्छा पूर्ण
करण्याचा आग्रह चांगदेवाजवळ धरला. तिच्या अनुरोधामुळे व्रतभंग झाल्यामुळे
त्यांनी गृहत्याग करायचे ठरवले. काही दिवसांनंतर माहूरच्या यात्रेला
जाण्यासाठी फलटणहून अनेक लोक निघाले. पत्नीचा निरोप घेऊन चांगदेव त्या
झुंडीबरोबर घराबाहेर पडले आणि माहूरला पोचले, तेथील मेरुवाळा तलावाच्या
पाळीवर यात्रा उतरली होती. त्या यात्रेतच चांगदेवही होते. मेरुवाळय़ात स्नान
करून श्रीदत्तात्रेयाच्या शयनस्थानाकडे दर्शनासाठी जात असताना एका
जाळीखालून श्रीदत्तात्रेयप्रभू व्याघ्रवेशाने डरकाळय़ा फोडीत आले. त्या
डरकाळय़ांनी भिऊन सारे लोक पळून गेले. चांगदेवांना मात्र भीती वाटली नाही.
ते स्तब्धपणे त्या व्याघ्ररूप दत्तात्रेयाकडे पाहत उभे राहिले. त्या
व्याघ्राने एक पंजा चांगदेवांच्या मस्तकावर ठेवला आणि चांगदेवांना पर आणि
अवर शक्ती प्रदान केल्या. अशा प्रकारे चांगदेवांना प्रत्यक्ष दत्तात्रेयाने
बोध दिल्यामुळे दत्तात्रेयप्रभू हे 'महानुभाव संप्रदायाचे आदिकारण' बनले. स्वत: चक्रधरांनी दत्तात्रेयाविषयी
कमालीचा श्रद्धाभाव व्यक्त केला असल्यामुळे महानुभावीय गं्रथकारांनी आपल्या
ग्रंथातून प्रारंभी दत्तात्रेयाला वंदन केलेले आहे.
चांगदेवांच्या नावापुढे 'राऊळ' हे उपपद आहे. 'राऊळ' म्हणजे गुरू वा
श्रेष्ठ पुरुष. नाथ संप्रदायात 'राऊळ' (रावळ) या नावाचा एक उपपंथ आहे. या
उपपंथाचा प्रवर्तक नागनाथ नामक एक सिद्ध समजला जातो. या उपपंथात
मुसलमानांचा भरणाही बराच आहे. महानुभावांच्या गं्रथात क्वचित
मुकुंदराजांच्या नाथ परंपरेशी अनुबंध जोडणारे जे उल्लेख आढळतात, त्यांचा या
'राऊळ' शाखेशी काही संबंध असावा, असे वाटते.
चांगदेव राऊळ बराच काळ माहूर येथे राहिले. तेथे असताना त्यांनी अवधूतवेश
स्वीकारलेला होता. गावात भिक्षा मागून ते पर्वतावर विहरण करीत. पुढे काही
दिवसांनी ते द्वारावतीला गेले. तेथे गोमतीच्या तीरावर ते गुंफा बांधून
राहिले. उजव्या हातात खराटा आणि डाव्या हातात सूप घेऊन ते द्वारकेतील रस्ते
झाडीत आणि तो केर सुपात भरून गोमतीत टाकून देत. हा त्यांचा नित्याचा
कार्यकम. दर्शनाला येणाऱ्या अधिकारी पुरुषांना हातातील
सूप वा खराटा मारून ते विद्यादान करीत. अशा बावन्न पुरुषांना त्यांनी
विद्यादान केले. एका तांत्रिक योगिनीच्या रतीच्या आग्रहातून सुटका करून
घेण्यासाठी त्यांनी योगमार्गाने देहत्याग केला.
त्याचे प्रमुख शिष्य ऋ द्धिपूरचे गुंडम राऊळ आणि गुंडम राऊळांचे शिष्य
श्रीचक्रधर. चक्रधर हे चांगदेव राऊळांचेच अवतार होत, अशी महानुभावांची
श्रद्धा आहे. भडोचच्या एका प्रधानाच्या मृत पुत्राच्या (हरपाळदेव) शवात
श्रीचांगदेव राऊळांनी प्रवेश केला, अशी कथा या संप्रदायात रूढ आहे. हा
कायाप्रवेशाचा काळ श. ११४२ समजला जातो. याचा अर्थ असा की, श. ११४२ च्या
सुमारास चांगदेव राऊळांचे निर्वाण घडून आले. त्यांच्या नाहूर आणि द्वारावती
येथील निवासाचा काळ ४२ वर्षांचा मानला, तर सुमारे श. ११०० च्या सुमारास
त्यांना दत्तदर्शन झाले, असे म्हटले जाते. या वेळी त्यांचे वय पंचवीस-तीस
वर्षे असावे. म्हणजे त्यांचा जीवन-काल अंदाजे श. १०७२ ते ११४२ (इ.स. ११५०
ते १२२०) असा ७० वर्षांचा ठरतो. ज्याच्या ऐतिहासिक नोंदी आढळतात, असा हा
पहिला दत्तभक्त होय. चांगदेव राऊळ माहूरच्या यात्रेनिमित्त फलटणहून निघाले
होते, या गोष्टीवरून माहूरच्या दत्तस्थानाचा महिमा त्यांच्याही पूर्वी
दूरवर पसरलेला होता, हे सिद्ध होते.
महानुभाव संप्रदायाचे संस्थापक आणि त्यांचा संप्रदाय मराठी संस्कृतीच्या
इतिहासात काहीसा अभिनव आहे. चक्रधरांच्या व्यक्तित्वात अनेकविध विचारांचे
संस्कार आहेत. जैन धर्म आणि नाथ संप्रदाय यांच्या विचार आचारांचा प्रभावी
संस्कार त्यांच्या व्यक्तिमत्त्वावर झाला असावा, असे मानण्यास त्यांच्या
चरित्रग्रंथात (लीळाचरित्रात) भरपूर वाव आहे. परमगुरूचा गुरू म्हणून
चक्रधरांनी दत्तात्रेयाला पूज्य मानले आणि आपल्या संप्रदायाच्या
तत्त्वज्ञानातही ईश्वरावतार म्हणून दत्तात्रेयाचे स्थान प्रथम मानले.
(वास्तविक महानुभाव संप्रदायाचे प्रवर्तन चक्रधरांनी केले. त्यांचे गुरू
गुंडम राऊळ आणि परम गुरू चांगदेव राऊळ हे काही खऱ्या अर्थाने महानुभाव
सांप्रदायिक नव्हते. ते नाथ सिद्ध असावेत, असा माझा साधार तर्क आहे. परंतु
त्यांच्या संप्रदायाचा विचार येथे अप्रस्तुत असल्यामुळे त्याविषयी मी तेथे
विस्तार करीत नाही.) चक्रधारोक्त सूत्रपाठात दत्तात्रेयाच्या महिमानाविषयी
चार सूत्रे आहेत. चक्रधर पांचाळेश्वर या विख्यात दत्तस्थानी गेले असल्याचे
नोंद लीळाचरित्रात आहे. 'हे देखिलें गा: दत्तात्रेय प्रभूंचे गुंफास्थान:'
असे त्या वेळचे त्याचे आनंदोद्गार आहेत. आपल्या अनुयायांना उपदेश करताना
निरनिराळय़ा निमित्ताने चक्रधरांनी दत्तात्रेयाच्या अवतारकथा सांगितल्या
आहेत. या कथा लीळाचरित्रात 'सैहाद्रलीळा' म्हणून समाविष्ट झालेल्या आहेत.
अलर्क राजाचे त्रिविध ताप नाहीसे करणे, रेणुकेला आपल्या वडिलांच्या
सांगण्याप्रमाणे मारून टाकल्यावर परशुरामाचे माहूर येथे आगमन व तपश्चर्या,
हैहयवंशी सहस्रार्जुनाला वरप्रदान, इत्यादी त्या लीळा होत. स्वत:
चक्रधरांनी दत्तात्रेयाविषयी कमालीचा श्रद्धाभाव व्यक्त केला असल्यामुळे
महानुभावीय गं्रथकारांनी आपल्या ग्रंथातून प्रारंभी दत्तात्रेयाला वंदन
केलेले आहे. महानुभावांच्या आद्य ग्रंथापैकी 'साती ग्रंथ' म्हणून प्रसिद्ध
असलेल्या सात ग्रंथातील 'उद्धवगीता' (इ.स. १३१४) या भास्करभट बोरीकराच्या
एकादशटीकेत प्रारंभीच दत्तात्रेयाला नमन केलेले आहे-
सैहाचळाचिये चुळुके : जयाचे प्रभामंडळ फांके तो श्रीदत्तु लल्लाट-फळकें: नमस्करीतु असे॥
महानुभावांच्या 'साती ग्रंथा'त 'सैदाद्रवर्णन' या नावाचा ग्रंथ केवळ
दत्तमहिमा गाण्यासाठी लिहिलेला आहे. या ग्रंथाची रचना श. १२५४मध्ये रवळो
व्यास नामक ग्रंथकाराने केली आहे. या ग्रंथाची ओवीसंख्या ५१७ आहे. या
गं्रथाचा विषय दत्तात्रेयाच्या मूर्तीचे व लीलांचे वर्णन करणे हा आहे.
ग्रंथाच्या प्रारंभीच गं्रथकाराने आपला रचनाहेतू स्पष्ट केला आहे -
जो नित्य तेजें अधिष्ठाता : स्वयंप्रकाश आनंदसविता तो उदैला चैतन्याचळमाथा : तया नमुं श्रीचक्रपाणी तो अवतारांतु गुरुवा : दैवी सुंदर्य बरवा तया वेधला सुहावा : गुरुदेव देखा तया श्रीचक्रपाणीचेन : वर प्रसादें मी करीन मुर्तलीळावर्णन : श्रीदत्तात्रयाचें
या ५१७ ओव्यांच्या ग्रंथात ५१-१८६ या ओव्यांत दत्तमूर्तिवर्णन (५१-१२५);
अलर्कराजा, कार्तवीर्य (१२६-१५०); परशुरामाचे माहूर येथे जाणे व तपश्चर्या
(१५१-१७५); सैहाद्रपर्वत व एकवीरा यांचे वर्णन (१७६-१८०) आणि
विज्ञानेश्वर, आत्मतीर्थ व पांचाळेश्वर (१८१-१८६) एवढा दत्तात्रेयविषयक भाग
आहे. पुढे महानुभाव परंपरेतील गुंडम राऊळ, चक्रधर आणि ग्रंथकाराच्या
गुरुपरंपरेतील अन्य व्यक्ती यांच्या गौरवाचा भाग आहे.
रवळो व्यासाने आपला दत्तात्रेयाविषयीचा श्रद्धाभाव उत्कटतेने आणि अत्यंत काव्यमधुर शब्दांनी व्यक्तविला आहे :
कीं चैतन्यकनकाचा लांबणदीवा : आत्रीवंशआनंदकुळैवा कीं स्वयंप्रकाश आखंड लाखवा : जीवोद्धरणाचा कीं सर्वशक्तीचा मेळीं : परज्ञानचक्रगोंदळीं : आनंद प्रकटला भूतळीं : जीवा उदो करीतु
कीं अनुसयागर्भगगनीं तापनाशक : उदैला आनंदमृगांक या पराकोटीच्या
भक्तिभावामुळे रवाळो व्यासाने आपल्या परम उपास्याच्या मूर्तीचे वर्णन
करताना सारे प्रतिभासामथ्र्य शब्दांत ओतले आहे. दत्तमूर्तीच्या सौंदर्याला
आणि तेजाला या चराचरांत कशाचीही उपमा शोभू शकत नाही. हे सांगताना रवळो
व्यास म्हणतो :
जऱ्ही संध्यारागाचे सदा : काले दीजति जांबुनदा तऱ्ही तीय आंगकांतीसीं कदा : उपमुं नये कनकगीरीचा गाभा सोलुनि : वर सूर्यप्रकाश संचारौनि ओपा सारिजैल घोंटाळुनि : तऱ्ही उपमा नव्हे परि हे उपमा पाबळी : करणीयचि नुरे पारबाळी श्रीदत्ताची अंगकांति आगळी : सहज म्हणौनि
आनंदाच्या आमोदाने भक्तभंृगांचे डोहाळे पुरवणारी दत्तप्रभूची चरण कमळे
ग्रंथकाराला रंगाळ कुंकुमाच्या ठशाहूनही अधिक सुरंग सुकोमळ भासतात.
आनंदाश्रूंच्या जळाने नयनांच्या चिरकांडीतून तो या श्रीचरणांचे अभिषेचन
करतो. त्या चरणांना कंपादी भावाचा विजनवारा घालतो आणि मुखचंद्राची शोभा
तन्मयतेने न्याहाळत राहतो. त्याला सैहाचळावरील वृक्षलतांचा, पशुपक्ष्यांचा
आणि तेथील लहानशा परमाणूंचाही हेवा वाटतो. तेथील अणुरेणूवर
श्रीदत्तात्रेयाच्या कृपेचा वर्षांव होत असतो, त्या सैहाद्राचे हृदयंगम
वर्णन रवळो व्यासाने केले आहे.
तंव तो देखिला पर्वतु : जो कुळाचळांमाजि विख्यातु : तेथ असे क्रिडतु : अत्रीनंदनु कायि सांगौ तेथिचीं झाडें : तीये पाहुनि सुरतरू बापुडे : तयां फळभोग जोडे : श्रीदत्तदर्शन तेथिचीया परमाणुची थोरी : ब्रह्मादिकां न बोलवे परी : कृपाकटाक्ष झटके जयावरि : श्रीदत्तात्रयाचा
अशी आहे महानुभावांची दत्तभक्ती. महानुभाव संप्रदायाच्या प्रसाराबरोबर
दत्तप्रभूचा जयजयकार पंजाब-पेशावपर्यंत संप्रदायाच्या मठांतून घुमत राहिला.
नाथ संप्रदायानंतर अखिल भारतात दत्तोपासना आपल्या परीने वाढविण्याचा
प्रयत्न करणारा संप्रदाय केवळ हाच आहे. प्राचीन काळात नाथ संप्रदाय आणि
महानुभाव संप्रदाय या दोन संप्रदायांशिवाय इतर कोणताही मराठी भक्तिसंप्रदाय
महाराष्ट्र-कर्नाटकाच्या सीमांपलीकडे दत्तोपासनेचा डंका झडवू शकला नाही. दत्तात्रेय आणि वारकरी संप्रदाय
वारकरी संप्रदाय हा मराठी भक्तिपरंपरेतील एक उदार आणि उदात्त प्रवाह
असल्यामुळे समन्वयाचे प्रतीक असलेला दत्तात्रेय वारकऱ्यांनाही पूज्य
ठरल्यास आश्चर्य नाही. नाथ पंथाचा महनीय वारसा घेऊन वारकरी संप्रदायाचे
संजीवन करणारे श्रीज्ञानदेव यांच्या साहित्यांत दत्तविषयक उल्लेख अभावानेच
आढळतात. ज्ञानेश्वरी व अमृतानुभव यांत दत्तविषयक उल्लेख नाही. परंतु
ज्ञानदेवांच्या अभंगगाथ्यात जो एक दत्तविषयक अभंग आहे त्यात ज्ञानदेवांनी
दत्तगुरूविषयीचा असीम श्रद्धाभाव उत्कटपणे व्यक्त केला आहे.
पैल मेरूच्या शिखरीं। एक योगी निराकारी। मुद्रा लावूनि खेचरी। ब्रह्मपदीं बैसला॥१॥ तेणें सांडियेली माया। त्यजियेली कंथाकाया। मन गेलें विनया। ब्रह्मानंदामाझारीं॥२॥
या ज्ञानदेवांच्या अभंगात व्यक्त झालेले दत्तस्वरूप पौराणिक
दत्तदेवतेसारखे जाणवत नसून नाथ संप्रदायांत आदरणीय ठरलेले, एखाद्या
महासिद्धासारखे वाटते. येथे योगसाधनेच्या मार्गाने सिद्धावस्था प्राप्त
करून घेतलेला एक महायोगी असा 'दत्तात्रेय योगिया' अभिप्रेत आहे.
ज्ञानदेवांच्या समग्र साहित्यातील हा दत्तगौरवाचा एकच अभंग ज्ञानदेवांचा
दत्तात्रेयाविषयीचा श्रद्धाभाव समर्थपणे व्यक्त करणारा असून, त्या अभंगात
दत्तात्रेयाचे मूलस्वरूपही सूचित झाले आहे, असे मला वाटते. या अभंगातील
'पैल मेरूच्या शिखरीं' हा स्थलनिर्देश माहूर क्षेत्रासंबंधीचा आहे.
मेरुवाळा नामक तलावाजवळ डोंगरावर जे दत्तस्थान आहे, त्याला 'शिखर'
असे नाव आहे. या अभंगाच्या अखेरच्या कडव्यात गोदावरी-तीरावरचे 'आत्मतीर्थ'
आणि पांचाळेश्वर या दोन दत्तस्थानांचा उल्लेख आहे. 'ज्ञानदेवाच्या अंतरीं।
दत्तात्रेय योगिय॥' एवढय़ा मोजक्याच शब्दांत ज्ञानदेवांनी आपली भावसघनता
व्यक्त केली आहे.
ज्ञानदेवांच्या कालखंडानंतर वारकरी संप्रदायाचे भरण-पोषण ज्या
महामानवाने केले ते श्रीएकनाथ एक श्रेष्ठ दत्तोपासक होते. नाथांना मिळालेला
गुरुबोध दत्तोपासनेच्या परंपरेतील असल्यामुळे गुरूपरंपरेच्या दृष्टीने
त्यांचा समावेश दत्त संप्रदायातील साधुसंतांतच करावा लागेल. नाथांची
दत्तोपासना आणि दत्तविषयक रचना विशेष अशीच होती. 'दत्तप्रबोध' हा दत्त
संप्रदायातील सन्मान्य ग्रंथ लिहिणारे कावडीबोवा हे नाथांच्या परंपरेतील
सुविख्यात वारकरी संत श्रीनिंबराज दैठणकर यांच्या शिष्यशाखेतील होत.
'तीन शिरें सहा हात' अशा त्रिमूर्तीला दंडवत घालणारे तुकोबा दत्तात्रेयाविषयी भक्तिभाव व्यक्त करताना म्हणतात:
नमन माझें गुरुराया। महाराजा दत्तात्रेया॥१॥ तुझी अवधूत मूर्ति। माझ्या जीवाची विश्रांति ॥२॥ जीवींचें सांकडें। कोण उगवील कोडें॥३॥ अनसूयासुता । तुकां म्हणे पाव आता॥४॥
जीवींचे सांकडे फेडणाऱ्या आणि भवभ्रमाचे कोडे उलगडणाऱ्या अवधूत दत्तात्रेयाची मूर्ती तुकारामांच्या हृदयाची विश्रांती बनलेली आहे. कल्याणांचा हा दत्तात्रेय सतेज सुंदर
कांतीचा असून दिगंबर आहे. तो सनातन सिद्ध असून, विधि, हरि आणि त्रिपुरारि
या त्रयीचा समावेश असणारा पूर्णावतारी आहे. तो भागीरथीच्या तीरी नित्य
आन्हिक उरकतो आणि करवीरांत भिक्षा मागतो.
स्वत:ला ज्ञानेश्वरकन्या मानणारे विदर्भातील प्रज्ञाचक्षु संत
श्रीगुलाबराव महाराज यांच्या 'प्रियलीलामहोत्सव' नामक ग्रंथात दत्तमहिमान
यथार्थ गायिले आहे :
सहावा सुंदरु सर्व विश्वा गुरु। अत्रीचा कुमरु दत्तात्रेय॥ अनसूयातपें जाहला जो प्राप्त। जीवा उद्धरीत एकसरा॥ न होय जयाचें मोघ दरुशन। कृपावंत पूर्ण दीनानाथु॥ नाना अवतार होऊनियां गेले। दत्तत्व संचलें जैसें तैसें॥ दत्तात्रेय आणि समर्थ संप्रदाय
एकनाथाप्रमाणेच समर्थानाही दत्तात्रेयाने मलंगवेशाने दर्शन दिल्याची एक
अद्भुत कथा समर्थाच्या सांप्रदायिक चरित्रातून आढळते. दासबोध रचनेसाठी
वापरलेल्या संदर्भग्रंथांची जी यादी दासबोधाच्या पहिल्या दशकातील पहिल्याच
समासांत समर्थानी दिली आहे, तीत दत्तप्रणीत अवधूतगीतेचा आणि गुरुगीतेचा
समावेश आहे. ज्ञानदेवांप्रमाणेच समर्थ दत्तात्रेयाला उपास्य देवता न मानता
गुरूस्वरूप सिद्धपुरुष मानतात आणि त्याचा गोरक्षाबरोबर उल्लेख करतात.
दत्त गोरक्ष आदि करूनी। सिद्ध भिक्षा मागती जनी। नि:स्पृहता भिक्षेपासुनी। प्रगट होये॥
'अवधूतगीता' हा ग्रंथ दत्तात्रेयाने गोरक्षनाथास निरूपिला आहे अशी समर्थाची साक्ष आहे.
अवधूतगीता केली। गोरक्षीस निरोपिली॥ हे अवधूतगीता॥ बोलिली। ज्ञानमार्ग॥
समर्थाचे एक स्वानुभवी शिष्य दिनकरस्वामी तिसगांवकर यांनी आपल्या
'स्वानुभवदिनकर' या ग्रंथात संमतिग्रंथ म्हणून अवधूतगीतेचा आदर केला आहे.
दिनकरस्वामीही समर्थाप्रमाणेच दत्तात्रेयाचा समावेश सिद्धमालिकेत करतात.
दत्त दुर्वासादि वशिष्ठ हनुमंत। कपिल मत्स्येंद्रादि गोरक्ष अवधूत। नवनाथ चौऱ्ह्यासी सिद्ध युक्त। योगसिद्धि थोरावले॥ दत्त गोरक्ष हनुमंत। आदिनाथ मीन गैनि अवधूत। चौऱ्ह्यासी सिद्ध आणि योगी समस्त। नवही नाथ॥ संत महंत मुनेश्वर। सिद्ध साधु योगेश्वर दत्त गोरक्ष दिगंबर। जये स्वरूपीं निमग्न॥
समर्थाचे पट्टशिष्य कल्याणस्वामी यांच्या एका पदांत दत्तात्रेयाच्या
स्वरूपाचे, संचाराचे आणि सर्वप्रियतेचे भक्तिपूर्ण वर्णन आहे. कल्याणांचा
हा दत्तात्रेय सतेज सुंदर कांतीचा असून दिगंबर आहे. तो सनातन सिद्ध असून,
विधि, हरि आणि त्रिपुरारि या त्रयीचा समावेश असणारा पूर्णावतारी आहे. तो
भागीरथीच्या तीरी नित्य आन्हिक उरकतो आणि करवीरांत भिक्षा मागतो. त्याचा
रात्रीचा निवास (सिंहाद्रि-) पर्वतावर असतो. त्याची योगलीळा अद्भुत आहे. तो
कृपाघनमूर्ती असल्यामुळे दीन अनाथांचा तो त्राता वाटतो. त्याचा महिमा असा
असल्यामुळे अनेक पंथ पुरातन काळापासून त्याचे ध्यान करीत आले आहेत.
अत्रिनंदन वंदन जगत्त्रयीं। अनाथ दीन तारी। दत्त भिक्षाहारी॥ सुंदर कांति सतेच मनोहर। दिगंबरवपुधारी॥ सिद्ध सनातन पूर्णावतारी। विधी हरि त्रिपुरारी॥
या शिवाय समर्थ संप्रदायातील अनेक संतमहंतांनी व्यक्त कलेला दत्त विषयक
उत्कट भक्तिभाव आपणास त्यांच्या वाङ्मयसंभारांत अनेक ठिकाणी आढळेल. दत्तात्रेय आणि आनंद संप्रदाय
महाराष्ट्राचे लोकप्रिय आख्यानकवी श्रीधरस्वामी नाझरेकर हरिवरदा-कार
श्रीकृष्णदयार्णव हे दोन वेगवेगळय़ा परंपरांतील सत्पुरुष आनंद संप्रदायी
होते. या दोघांच्याही गुरुपरंपरा दत्तात्रेयादी आहेत. श्रीधरांची
गुरुपरंपरा
दत्तात्रेय-सदानंद-रामानंद-अमलानंद-गंभीरानंद-ब्रह्माानंद-सहजानंद-पूर्णानंद-दत्तानंद-
ब्रह्माानंद-श्रीधर अशी आहे. पूर्णानंदांचे नातशिष्य रंगनाथस्वामी हे
श्रीधरांचे चुलत चुलते होते. परंपरेतील अनेक संतांनी 'गुरुगीते'वर टीका
लिहिल्या आहेत. रंगनाथस्वामी काही पदांत दत्तात्रेयाचे महिमान गायिले आहे.
एका पदांत दत्तात्रेयाच्या विश्वव्यापक स्वरूपाचे वर्णन करताना ते म्हणतात :
गुरुदेव दत्ता, अनंत ब्रह्मांडीं तुझी सत्ता॥ध्रु॥ विश्वव्यापका विश्वंभरिता, विश्वधीशा विश्वातीता। प्रमेय-प्रमाता-प्रमाणरहिता, जगद्गुरू अवधूता॥१॥ नित्य निरंतर अगमागोचर, परात्परतर सुखदाता। दीनदयाकर दत्त दिगंबर, सत्यज्ञानानंता॥२॥
रंगनाथस्वामींनी 'देव-त्रिरूप' अशा दत्तात्रेयावर एक मधुर आरती रचलेली
आहे. तित त्यांनी 'निजसुखदायक' अशा 'देशिकनायका'ला (गुरु श्रेष्ठाला)
भक्तिभराने ओवाळले आहे. कारण त्यांची अशी दृढ श्रद्धा आहे की-
रंगीं रंगुनि अनन्यभावें जे भजती। अभिवंदुनि मग त्यांतें वोळंगति मुक्ती॥
श्रीधरांच्या प्रचंड गं्रथसंभारांत दत्तभक्तीचा धागा अनुस्यूत आहे.
आपल्या या आदिगुरूच्या महात्म्यवर्णनासाठी 'श्रीदत्तात्रेयमहात्म्य' या
नावाचे एक स्वतंत्र प्रकरण (ओव्या २६) श्रीधरांनी लिहिले आहे आणि अन्य
ग्रंथांत प्रसंगाविशेषी त्यांचे मन दत्तचरणांचा वेध घेत राहिले आहे.
श्रीधरांनी एकनाथांप्रमाणेच दत्तात्रेयभक्तीमुळे आपल्या 'रामविजया'त एक
नवा प्रसंग कल्पिला आहे : वनवासाच्या प्रारंभकाळी अनेक ऋषींच्या आश्रमांना
भेटी देत देत जेव्हा राम अत्रीच्या आश्रमात येतो, तेव्हा त्याला
दत्तात्रेयाचे दर्शन होते. हा राम-दत्त-भेटीचा श्रीधराने दत्तमाहात्म्याने
रंगवून टाकला आहे :
मग अत्रीचिया आश्रमाप्रति। येती झाला जनकजापति। तों देखिली दत्तात्रेयमूर्ति। अविनाशस्थिति जयाची॥ सह्यद्रीवरी श्रीराम। अज अजित मेघश्याम। श्रीदत्तात्रेय पूर्णब्रह्म। देत क्षेम तयातें॥ क्षीरसागरींच्या लहरिया। कीं जान्हवी आणि मित्रतनया। परस्परें समरसोनिया। एक ठायीं मिळताती॥ कीं नाना वर्ण गाई। परि दुग्धास दुजा वर्ण नाहीं। तैसा जनकाचा जावाई। आणि अत्रितनय मिसळले॥ अवतारही उदंड होती। सवेंचि मागुती विलया जाती। तैसी नव्हे दत्तात्रेयमूर्ति। नाश कल्पांतीं असेना।
वरील उताऱ्यांत श्रीधरांनी दत्तात्रेयाचे अमोघ दर्शन, त्याचा निवास व
विहार, त्याची परमपूजनीयता, त्याच्या अवताराची चिरंतनता आणि त्याच्या
भक्तांचें सामथ्र्य इत्यादी गोष्टी स्पष्टपणे सांगितल्या आहेत.
श्रीधरांच्या स्फुट कवितेतही त्यांची दत्तभक्ती प्रकटली आहे. श्रीधरस्वामी
दत्तचरणांजवळ एकच मागणे मागतात :
दत्तात्रय श्रीगुरुदेवा। श्रीब्रह्ममूर्ति तव पादसेवा। अभंग हे तूं मजलागि देई। ठेवीं तुझ्या श्रीधर नित्य पायीं॥
श्रीकृष्णदयार्णव यांनी लिहिलेल्या 'हरिवरदा' या प्रचंड दशमस्कंधटीकेंत
गुरुपरंपरेच्या वंदनाच्या निमित्ताने सर्व अध्यायांच्या उपसंहारांत
दत्तगौरव आलेला आहे. दयार्णवांचे प्रधान शिष्य उत्तमश्लोक यांनी
'दत्तजननोत्साहवर्णन' या नावाने एक लहानसे प्रकरण (ओव्या १२६) लिहिले आहे. दत्तात्रेय आणि चैतन्य संप्रदाय
वारकरी परंपरेच्या महामंदिरावर सुवर्णकाळ चढविणारे तुकोबा हे
गुरुपरंपरेच्या दृष्टीने चैतन्य संप्रदायांत मोडतात. दत्तात्रेय आणि वारकरी
संप्रदाय यांच्या संबंधाविषयी लिहिताना त्यांचा उल्लेख आला आहेच.
राघव-चैतन्य-केशव-बाबाजी-तुकाराम अशी त्यांची मानवी गरुपरंपरा आहे. या
परंपरेतील राघव चैतन्यांनी दत्ताची उपासना केली होती. दत्तात्रेयाने
त्यांना व्यासांची कास धरावयास सांगितले. दत्तात्रेयाने प्रवर्तिलेल्या
चैतन्य संप्रदायाच्या एका निराळ्या शाखेत भैरव अवधूत ज्ञानसागर (समाधि : श.
१७६५) या नावाचा एक थोर दत्तोपासक होऊन गेला. भैरव अवधूतांची परंपरा
शिव-दत्तात्रेय-शिव चैतन्य-गोपाळ चैतन्य-आत्माराम चैतन्य-कृष्ण चैतन्य-
अद्वय चैतन्य-चिद्घन चैतन्य- ज्ञानेश चैतन्य- शिव चैतन्य- भैरव अवधूत
ज्ञानसागर अशी आहे. आपल्या 'ज्ञानसागर' या ग्रंथात भैरव अवधूतांनी
स्वत:च्या वंशाची आणि गुरुपरंपरेची माहिती दिलेली आहे.
भैरव अवधूत हे विटे (ता. खानापूर, जि. सातारा) या गावचे आश्वलायनशाखीय
विश्वामित्रगोत्री ब्राह्मण. चिद्घनस्वामींच्या बहिणीच्या वंशात त्यांचा
जन्म झाला होता. अप्पाजीबुवा हे त्यांचे लौकिक नाव होते. त्यांच्या
घराण्यात त्यांच्या आजोबांपासून सत्पुरुषांची परंपरा चालू होती. ते आपले
चुलते शिवाजीपंत यांना दत्तक गेले होते. शिवाजीपंत (शिवचैतन्य) हेच त्यांचे
दीक्षागुरूही होते. पैठण येथे राहणारे लक्ष्मीनाथ या नावाचे नाथपंथी साधू
भैरव अवधूतांचे मित्र होते. त्यांच्या प्रेरणेने भैरवांनी पैठणास
दत्तोपासना आचरली. या उपासनेचे आत्मिक फळ प्राप्त झाल्यावर पैठणहून
दत्तमूर्ती घेऊन ते स्वग्रामी परत आले. विटय़ास मूर्ती आणल्यानंतर (श. १७३३)
त्यांनी दत्तमंदिर बांधले आणि श. १७४५ पासून दत्तजयंतीचा महोत्सव सुरू
केला. त्यांनी काही काळ आळंदीस ज्ञानेश्वरांच्या चरणांशी निवास केला होता.
श. १७६२ मध्ये अगदी उतारवयात त्यांनी संन्यास स्वीकारला आणि त्यानंतर तीनच
वर्षांनी (श. १७६५ मार्गशीर्ष कृ. १३) ते समाधिस्थ झाले. विटे येथे अद्याप
त्यांचा वंश नांदत आहे. त्यांचे चिरंजीव दिगंबर चैतन्य यांनी त्यांचे
आर्यात्मक चरित्र लिहिले आहे.
भैरव अवधूतांचा आध्यात्मिक अधिकार मोठा होता. 'वेदान्तवक्ते' व
'परब्रह्मनिष्ठ' अशी त्यांची ख्याती होती. त्यांची रचना हजाराच्या आतच आहे,
परंतु तेवढय़ा अल्परचनेतही त्यांच्या वाणीचे नि प्रज्ञेचे सामथ्र्य
प्रत्ययास येते. त्यांच्या वाणीवर पैठण आणि आळंदी येथील निवासामुळे
शिवदीनकेसरी आणि ज्ञानेश्वर यांचा प्रभाव दृग्गोचर होतो. त्यांचा
'ज्ञानसागर' हा लघुग्रंथ (ओव्या ३१५) आणि सुमारे तीनशे पदे अभंग उपलब्ध
आहेत. हिंदीतही त्यांनी काही स्फुटरचना केली आहे. त्यांच्या सर्व रचनेत
उत्कट दत्तभक्ती ओसंडत आहे. दत्तात्रेयाचे रूप वर्णन करताना भैरव अवधूत
अध्यात्माची बैठक ढळू देत नाहीत.
दत्त परब्रह्म केवळ। नित्य पवित्र निर्मळ॥ अरूप रूप हे चांगले। ध्यानी मानस रंगले॥ भव्य प्रसन्न वदन। पाहतां निवाले लोचन॥ जटा मुकुट आणि गंगा। भस्म लावियेले अंगा॥
भैरव अवधूतांचे हे दत्तध्यान वैशिष्टय़पूर्ण आहे. दत्तात्रेयाच्या
माथ्यावर जटा आहेत आणि मुकुटही आहे, अंगाला भस्म फासले आहे, पायी खडावा
शोभत आहेत आणि गळ्यात वैजयंती माळा, कपाळी केशरकस्तुरी व कासेला पीतांबर-
हे संमिश्र रूप भक्तांच्या 'वेडय़ा' आवडीतून निर्माण झाले आहे. भैरव
अवधूतांचा हा 'षड्भुज सांवळा' त्यांच्या नित्य चिंतनाचा विषय बनला होता.
दत्तात्रेयाचे विश्वाकार रूप चितारताना भैरव अवधूत म्हणतात :
विश्वपट परिधान। करी अनसूयानंदन॥ दिगंबराचें अंबर। बरवें शोभे चराचर॥ नाना रत्नें वसुंधरा। घेऊनि आली अलंकरा॥ लेवविले अंगोअंगी। रंग रंगले निजरंगीं॥ ज्ञानसागराची शोभा। शिवगुरू अवधूत उभा॥
हा विश्वाकार दत्तात्रेय 'निरंजन श्याम' बनून 'होरी' खेळत असल्याचे मनोहर दृश्यही भैरव अवधूतांच्या भावविश्वांत रंगलेले होते.
खेले होरी दत्त निरंजन श्याम॥ ब्रह्म परात्पर आपहि आपमों। प्रकृती पुरुष अभिराम॥ अनुहत बाजत नाचत गावत। सप्त सूर तिन ग्राम॥ रोम रोम सब उडत फवारे। नयन भरे जलप्रेम॥ ज्ञानसागर शिवगुरु अवधूत। नामहि निजसुखधाम॥
भैरव अवधूतांना दत्तोपासनेची प्रेरणा एका नाथपंथी साधूकडून मिळाली आहे
आणि त्यांच्या गुरुपरंपरेत दत्तात्रेयाचे गुरुत्व शिवाकडे आहे, हे दोन दुवे
विशेष चिंतनीय आहेत.
या संप्रदाय-दीक्षितांशिवाय आणखी कितीतरी संतांनी आणि कवींनी उत्कट
भक्तिभावाने दत्त-गौरव गायिला आहे. महाराष्ट्रातील अनेक खासगी आणि
सार्वजनिक हस्तलिखितांच्या संग्रहात कितीतरी अज्ञात कवींची दत्तविषयक
स्फुटरचना संकलित आहे. धुळ्याच्या समर्थ वाग्देवता मंदिरांत विठ्ठलकृत
'दत्तात्रेयजन्म' (बाड क्र. १५४२): श्लोक ५६; राघवकृत 'दत्तात्रेयजन्मकथा'
(बाड क्र. ५६०): श्लोक १८; दत्तोपासनामंत्र (बाड क्र. १४८८); 'दत्तजन्मकाळ'
(बाड क्र. १६०) अशी लहान लहान प्रकरणे संग्रहित झालेली आहेत.
महाराष्ट्रातील सर्व भक्तिसंप्रदायांतील साधुसंतांची ही दत्तप्रीती पाहून
कल्याणस्वामींनी केलेला 'अनेक पंथ ध्याती पुरातन' हा दत्तगौरव यथार्थ वाटू
लागतो.